December 11, 2024 10:40 am
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बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते। 

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*जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती।*
*प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥*

जय श्री राम प्रभु भक्तों

बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते।  अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है। जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभु प्रेम से ही हो सकती है।  अपने समस्त अभाव, दुख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो। अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो।  हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है, कर्ता रामजी हैं, हम नहीं  सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के है। (सूत्र) संसार में सुख की खोज ही सब दुखों का कारण है। मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुखदायी है

मानस रुपी सरोवर में ईश्वर की प्राप्ति के लिए चार घाट बताए गए हैं, पहला ज्ञान , दूसरा कर्म, तीसरा उपासना, चौथा भक्ति घाट। इन चारों ही माध्यम से हमें ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है।

*परांचि खानि व्यत्रीनत स्वयंभू तस्मतपरांग पश्यति नांतरत्मं।* *कश्चितधिरा प्रत्यगातमानमैक्षदा वृतचक्षुर मृतात्वमिक्छन।*

परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, अतः वे बाहर ही देखती है, अंतर्रात्मा को नहीं। तब कोई धीर अमृत की इच्छा रखते हुए बंद नेत्रों वाला होकर दृष्टि शक्ति को अंदर फेरकर आत्मा का दर्शन करते हैं।

आंखो को बंदकर दृष्टि शक्ति को अंदर फेरना, यही है ध्यान की क्रिया। शास्त्रों में बताया गया है कि ईश्वर की अनुभूति से मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होता है।

संत कबीर बतलाते हैं कि निर्वाण कैसे मिलता है

*वेद परहंते पंडित होवे, रामनाम नहीं जाना।*

*कहे कबीर एक ध्यान भजन से पावे पद निरवाना।।*

निर्गुण निराकार अव्यक्त ईश्वर या परमात्मा को हमारी इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती। वेद कहता है कि इंद्रियों के द्वारा ईश्वर को ग्रहण करने की कोशिश करना झूठ ही एक खेल करना है। जो साधक योग्य गुरु से युक्ति जानकर ध्यान करते हैं, वे अंदर में ब्रह्मज्योती का दर्शन करते है, फिर वे ॐकार ध्वनि सुनते हैं। पश्चात् उन्हें अपने आत्मा और परमात्मा की अनुभूति होती है।

ढेर सारे कथित विशेषज्ञ (आध्यात्मिक गुरु, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तर्कवादी आदि) अपने अपने ढंग से इन प्रश्नों के उत्तर देते रहते है फिर भी लोग इस प्रकार के प्रश्न बार बार क्यों पूछते चले जाते हैं?
क्योंकि सत्य यह है कि यह ज्ञान शब्दों के माध्यम से किसी के द्वारा किसी को नहीं दिया जा सकता। यह ज्ञान पूरी तरह अनुभवगत है। जैसे किसी खाद्य पदार्थ का स्वाद जानने के उसे स्वयं चखना पड़ता है, किसी के बताने या समझाने से नहीं जाना जाता। उसी प्रकार यह ज्ञान भी स्वयं के अनुभव से प्राप्त हो सकता है।

समस्त ब्रह्माण्ड, प्रकृति और जीवन परमात्मा का ही प्रकटीकरण है। सभी प्राणियों में जो चेतना है, वह ईश्वर का ही अंश है। समस्त जीव जगत में चेतना के असंख्य छोटे-बड़े स्तर (Levels) हैं। जीवों के द्वारा सभी कर्म चेतना के स्तर के हिसाब से किये जाते हैं। इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि हम सब आंशिक तौर पर ईश्वर ही हैं, किन्तु हमारे ईश्वरीय गुण की मात्रा हमारी चेतना के स्तर के हिसाब से तय होती है और उसी हिसाब से हमारे सामर्थ्य, विचार-शक्ति और कर्म तय होते हैं।

आध्यात्मिक जागृति अथवा ईश्वरीय अनुभूति का अर्थ उच्च स्तरीय चेतना है। सांसारिक जीवन के साथ मन के तादात्म्य की समझ जितनी गहरी होती जाती है, उतना ही चेतना का स्तर बढ़ता जाता है।

एक साधारण मनुष्य को जब
मैं कौन हूं ?
यह जिज्ञासा पकड़ती है, तब वह अपने मन की वृत्तियों और स्मृतियों की सीमाओं में ही स्वयं की पहचान कर पाता है। जैसे जैसे चेतना का स्तर बढ़ता है, वैसे वैसे मन का अतिक्रमण होता जाता है। किन्तु, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, ये बातें शब्दों के माध्यम से समझनी आसान नहीं हैं। आध्यात्मिक जागृति की गहरी समझ और आत्मानुभूति के बिना ये बातें केवल शब्द-जाल हैं।

वैसे इस दिशा में हम कुछ न भी करें, तब भी सांसारिक जीवन के अनुभव धीरे धीरे जन्म-दर-जन्म हमारी चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने का काम करते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य की चेतना का विकास होता है, वैसे-वैसे उसे समझ में आने लगता है कि समस्त संसार ईश्वर की लीला के रूप में एक विशाल नाटक-मंच है। हम सब इस नाटक में अपनी-अपनी चेतना के स्तर के अनुसार अपना-अपना रोल अदा करते हैं। समस्त सुख-दुख मन के तादात्म्य से पैदा होते हैं। आध्यात्मिक जागृति के अभाव में मन ही ईश्वर की लीला या माया में उलझा भांति-भांति के प्रपंच करता हुआ, स्वयं को कर्ता समझता है। इसी को कर्म-बंधन कहा जाता है। आध्यात्मिक जागृति के उच्च स्तर पर पहुंचने वाले मनुष्य के लिए संसार में मन की स्थिति ऐसी हो जाती है, जैसे किसी नाटक या फिल्म में अभिनय करने वाला अभिनेता। अर्थात उस अवस्था में संसार में सब कर्म अभिनय की तरह लगते हैं और तब मनुष्य कर्मों से बंधता नहीं। उस स्थिति में पहुंचने पर मनुष्य मुक्तात्मा कहलाता है। इसी को आध्यात्मिक जागृति या ईश्वरीय अनुभूति कहते हैं।

एक कहानी मैंने पढ़ी थी कहीं पर

गुरुकुल का प्रवेशोत्सव समाप्त हो चुका था, कक्षाएँ नियमित रूप से चलने लगी थीं। योग और अध्यात्म पर कुलपति स्कंधदेव के प्रवचन सुनकर विद्यार्थी बड़ा संतोष और उल्लास अनुभव करते थे।

एक दिन प्रश्नोत्तरकाल में शिष्य कौस्तुभ ने प्रश्न किया, “गुरुदेव! क्या ईश्वर इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है।”

स्कंधदेव एक क्षण चुप रहे। कुछ विचार किया और बोले, “इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें कल मिलेगा और हाँ, आज सायंकाल तुम सब लोग निद्रादेवी की गोद में जाने से पूर्व १०८ बार वासुदेव मंत्र जप करना और प्रातःकाल उसकी सूचना मुझे देना।”

प्रातःकाल के प्रवचन का समय आया। सब विद्यार्थी अनुशासनबद्ध होकर आ बैठे। कुलपति ने अपना प्रवचन प्रारंभ करने से पूर्व पूछा, “तुममें से किस-किसने कल सायंकाल सोने से पूर्व कितने-कितने मंत्रों का उच्चारण किया?” सब विद्यार्थियों ने अपने-अपने हाथ उठा दिए। किसी ने भी भूल नहीं की थी। सबने १०८-१०८ मंत्रों का जप और भगवान का ध्यान कर लिया था।

किंतु ऐसा जान पड़ा-स्कंधदेव का हृदय क्षुब्ध है, वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। कौस्तुभ नहीं था, उसे बुलाया गया। स्कंधदेव ने अस्त-व्यस्त कौस्तुभ के आते ही प्रश्न किया, “कौस्तुभ ! क्या तुमने भी १०८ मंत्रों का उच्चारण सोने से पूर्व किया था?”

कौस्तुभ ने नेत्र झुका लिए तथा विनीत वाणी और सौम्य मुद्रा में उसने बताया, “गुरुदेव ! अपराध क्षमा करें, मैंने बहुत प्रयत्न किया, किंतु जब जप की संख्या गिनने में चित्त चला जाता, तो भगवान का ध्यान नहीं रहता था और जब भगवान का ध्यान करता तो गिनती भूल जाता। रात ऐसे ही गई और वह व्रत पूर्ण न कर सका।”

स्कंधदेव मुस्कराए और बोले, “बालको! कल के प्रश्न का यही उत्तर है। जब संसार के सुख, संपत्ति और भोग की गिनती में लग जाते हैं तो भगवान का प्रेम भूल जाते हैं। बाह्य कर्मकांड से चित्त हटाकर उसे कोई भी प्राप्त कर सकता है।

*देहु भगति रघुपति अति पावनि।*
*त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि*
*प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु।*
*होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥*

हे रघुनाथ जी! आप हमें अपनी अत्यंत पवित्र करने वाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए॥

*मन कर्म वचन छाडि चतुराई*
*भजत कृपा करि हहिं रघुराई*

श्री राम जय राम जय जय राम
*प्रभु सबका कल्याण करें*
*यह रचना मेरी नहीं है। मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🌷*

गिरीश
Author: गिरीश

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