हम देवताओं की स्तुति क्यों करते हैं ?
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जहाँ हम असमर्थ होते हैं वहाँ अपने से सामर्थ्यवान की स्तुति करते हैं, उनकी आवश्यकता का अनुभव करते हैं।
जो ज्ञान होता है वह वस्तुतंत्र या प्रमाणतंत्र होता है। वस्तु के अधीन या प्रमाण के अधीन ज्ञान की निष्पत्ति होती है।
क्रिया में व्यक्ति (कर्ता) का स्वातंत्र्य है क्यूंकि कतृतंत्र कर्म या क्रिया की निष्पत्ति है लेकिन ज्ञान में कर्ता स्वतंत्र नहीं है।
काम ठीक ठाक है और किसी ने छींक दिया तो भले ही हम छींक सुनना पसंद न करते हों, अशुभ मानते हों फिर भी हम छींक सुनने को बाध्य हैं।
लहसुन-प्याज की गंध हमे न भाती हो परंतु नासिका अगर ठीक है तो किसी के छौंकने पर हम गंध ग्रहण करने को बाध्य हैं।
इन दृष्टांतो के बल पर यही तथ्य सिद्ध होता है कि ज्ञान वस्तुतंत्र है, प्रमाणतंत्र है।
लेकिन जहां हम असमर्थ हैं वहाँ देवता समर्थ होते हैं।
उदाहरण ” चन्द्रमा मनसो जात:’ – भगवान के मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई जबकि हमारे आपके मन के अनुग्राहक देव चन्द्रमा हैं।
भगवान के अध्यात्म से अभिव्यक्त अधिदेव हमारे अध्यात्म के उद्दीपक या प्रकाशक सिद्ध होते हैं।
हमारा – आपका मन चन्द्रमा से उद्भासित या प्रकाशित है जबकि विराट हिरण्यगर्भ की बात करें तो उनके मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति होती है।
भगवान के मुख से अग्नि की उत्पत्ति होती है, वाक्इन्द्रिय से अग्नि की उत्पत्ति होती है जबकि हमारे वाक्इन्द्रिय के अनुग्राहक देवता अग्नि हैं।
इस प्रकार जहाँ हम असमर्थ हैं वहाँ समर्थ देवताओं की स्तुति की जाती है।
अतः हम देवताओं की स्तुति करते हैं। ताकि उनके अनुग्रह से देहेन्द्रियप्राणान्तःकरण उपद्रव शून्य हो सकें।यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻
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