July 27, 2024 8:19 am
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महाशिवरात्रि का क्याअर्थ है?-

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महाशिवरात्रि का रहस्य

महाशिवरात्रि का क्याअर्थ है?-

1- हर महीने अमावस्या से पहले आने वाली रात को शिवरात्रि कहा जाता है। लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी के दिन आने वाले शिवरात्रि (Shivratri) को महाशिवरात्रि कहते हैं।

साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है।यह रात महीने की सबसे अँधेरी रात होती है।महाशिवरात्रि साल की सबसे अंधेरी रात है और इस रात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है क्योंकि उत्तरायण या सूर्य की उत्तरी गति के पूर्वार्द्ध में आने वाली इस रात को पृथ्वी एक ख़ास स्थिति में आ जाती है, जब हमारी ऊर्जा में एक प्राकृतिक उछाल आता है।

2-शिवरात्रि बोधोत्सव है। ऐसा महोत्सव, जिसमें अपना बोध होता है कि हम भी शिव का अंश हैं, उनके संरक्षण में हैं।इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य की भीतरी ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है।

3-महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व रखती है। यह उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक परिस्थितियों में हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। परंतु, साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन वे कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे।

4-इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं।

आधुनिक विज्ञान अनेक चरणों से होते हुए, आज उस बिंदु पर आ गया है, जहाँ उन्होंने आपको प्रमाण दे दिया है कि आप जिसे भी जीवन के रूप में जानते हैं, पदार्थ और अस्तित्व के रूप में जानते हैं, जिसे आप ब्रह्माण्ड और तारामंडल के रूप में जानते हैं; वह सब केवल एक ऊर्जा है, जो स्वयं को लाखों-करोड़ों रूपों में प्रकट करती है। यह वैज्ञानिक तथ्य प्रत्येक योगी के लिए एक अनुभव से उपजा सत्य है।

5-हम किसी भी देवी – देवता या महात्मा आदि के जन्मदिन को रात्रि से नहीं जोड़ते। श्रीकृष्ण जी का जन्म रात्रि 12 बजे मनाते है फिर भी जन्म रात्रि शब्द का प्रयोग नहीं करते परन्तु इस रात्रि को शिव रात्रि कहा गया है। क्या इस दिन शिव जी का जन्म होता है या अवतार लेते है या अवतरण होता है।वास्तव में रात्रि का अर्थ अज्ञानता से है।

6-अज्ञान रूपी घोर रात्रि जब धरती पर पापा चार ,अत्याचार ,दुराचार फैलता है तब भक्त आत्माये दुखी होकर परमात्मा का आवाहन करती है। तब परमपिता परमात्मा शिव का इस धरती पर अवतरण होता है।आत्मा के अंदर जो अज्ञान रूपी अन्धेरा है वह ज्ञान सूर्य प्रकट होने से दूर हो जाता है।इसलिए इसी कलियुगी तमो प्रधान रूपी रात्रि पर अर्थात कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के समय ( संगम पर) शिव आते है।यही समय है जो आत्मा परमात्मा का सच्चा कुम्भ मेला है ।

7-माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में इसी दिन आधी रात में भगवान शिव का निराकार से साकार रूप में (ब्रह्म से महेश्वर के रूप में) अवतरण हुआ था। ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात आदि देव भगवान श्रीशिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए।प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से भस्म कर देते हैं। इसलिए इसे महाशिवरात्रि या जलरात्रि भी कहा गया है। इस दिन भगवान शंकर की शादी भी हुई थी। इसलिए रात में शंकर की बारात निकाली जाती है।

8-समुद्र मंथन अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित तिथि थी, लेकिन इसके साथ ही हलाहल नामक विष भी पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसलिए केवल भगवान शिव इसे नष्ट कर सकते थे। भगवान शिव ने हलाहल नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित थे और उनका गला बहुत नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव ‘नीलकंठ’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए,देवताओं ने उनके मस्तक पर बेल-पत्र चढ़ाए और जल अर्पित किया तथा चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव के आनंद लेने और जागने के लिए, देवता अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे। जैसे सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया।

9-रात्रि के साथ शिव शब्द इसलिए जोड़ा गया क्योंकि शिव का अर्थ होता है – “वह जो नहीं है”। सृष्टि का अर्थ है – “वह जो है”। इसलिए सृष्टि के स्त्रोत को शिव नाम से जाना गया। शिव शब्द के अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह ध्वनि जो की शिव शब्द से जुडी है। यह ध्वनि एक ख़ास ऊर्जा उत्पन्न करती है जो हमें सृष्टि के स्त्रोत तक ले जा सकती है। इसलिए शिव एक शक्तिशाली मन्त्र भी है।

10-शिवरात्रि पर्व भगवान् शिव के दिव्य अवतरण का मंगलसूचक है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। वे हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारों से मुक्त करके परम सुख, शान्ति ऐश्वर्यादि प्रदान करते हैं।

समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा (शिव) से आत्मसाधना करने की रात शिवरात्रि है। इस दिन जीवरूपी चंद्रमा का परमात्मारूपी सूर्य के साथ योग रहता है, अत: शिवरा‍त्रि को लोग जागरण कर व्रत रखते हैं।

11-शिव की हर बात निराली और रहस्यमय है।भोलेनाथ संहार के अधिष्ठाता होने के

बावजूद कल्याण कारक कहलाते हैं।यह सभी जानते हैं कि भगवान शिव संहार शक्ति और तमोगुण के स्वामी है। इसीलिए रात्रि से उनका विशेष लगाव स्वाभाविक है। रात्रि को संहार काल माना जाता है।रात्रि के आते ही सबसे पहले प्रकाश पर अंधकार का साम्राज्य कायम हो जाता है। इसकी वजह यह है कि विनाश में भी सृजन के बीज छुपे रहते हैं। जब तक किसी वस्तु का विनाश नहीं होता है तब तक दूसरी वस्तु का सृजन नहीं होता है।

12-सभी जीव जंतुओं और प्राणियों की कर्म चेष्टाएँ खत्म हो जाती हैं और और निद्रा द्वारा चेतना का भी अंत होता है।पूरी दुनिया रात्रि के समय अचेतन होकर निद्रा में विलीन हो जाती

है।ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना सहज होता है। इसी वजह से भोलेनाथ की पूजा-अर्चना इस रात्रि में और हमेशा प्रदोष काल में की जाती है।

13-शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में आने का भी एक विशेष अर्थ है।शुक्ल पक्ष में चंद्रमा अपना पूर्ण रूप ले लेता है और कृष्ण पक्ष में धीरे-धीरे चंद्रमा की रोशनी कम होती जाती है।

जैसे जैसे चंद्रमा बढ़ता है, वैसे वैसे संसार के सभी रसवान पदार्थों में वृद्धि और घटने पर सभी पदार्थ क्षीण हो जाते हैं। चंद्रमा के क्षीण होने का असर प्राणियों पर भी पड़ता है।

जब चंद्रमा क्षीण होता है तो जीव जंतुओं के अंतः करण में तामसी शक्तियां प्रबल होने लगती हैं। जिसके कारण उनके अंदर तरह-तरह की अनैतिक और आपराधिक गतिविधियां जन्म लेती हैं।

14- भूत प्रेत भी इन्हीं शक्तियों में से एक है, और शिव को भूत प्रेत का स्वामी माना जाता है। दिन में जब प्रकाश रहता है तब जगत आत्मा अपनी शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं, पर रात्रि के अंधकार में यही शक्तियां बलवान हो जाती हैं। इन्हीं शक्तियों का

नाश करने और इन्हें नियंत्रण में रखने के लिए शिव को रात्रि प्रिय माना गया है।जिस प्रकार पानी की गति को रोकने के लिए पुल बनाया जाता है, उसी प्रकार चंद्रमा के क्षीण होने की तिथि आने से पहले उन सभी तामसी शक्तियों का नाश करने के लिए शास्त्रों में शिवरात्रि की आराधना करने का विधान बनाया है।

शिव और महाशिवरात्रि;-

1-शिव शब्द का मतलब है ‘वह जो नहीं है’। सृष्टि वह है – “जो है”। सृष्टि के परे, सृष्टि का स्रोत वह है – “जो नहीं है’। शब्द के अर्थ के अलावा, शब्द की शक्ति, ध्वनि की शक्ति बहुत अहम पहलू है। हम संयोगवश इन ध्वनियों तक नहीं पहुंचे हैं। यह कोई सांस्कृतिक घटना नहीं है, ध्वनि और आकार के बीच के संबंध को जानना एक अस्तित्व संबंधी प्रक्रिया है। हमने पाया कि ‘शि’ ध्वनि, निराकार या रूपरहित यानी जो नहीं है, के सबसे करीब है। शक्ति को संतुलित करने के लिए ‘व’ को जोड़ा गया।

2-अगर कोई सही तैयारी के साथ ‘शि’ शब्द का उच्चारण करता है, तो वह एक उच्चारण से ही अपने भीतर विस्फोट कर सकता है। इस विस्फोट में संतुलन लाने के लिए, इस विस्फोट को नियंत्रित करने के लिए, इस विस्फोट में दक्षता के लिए ‘व’ है। ‘व’ वाम से निकलता है, जिसका मतलब है, किसी खास चीज में दक्षता हासिल करना।इसलिए सही समय पर

जरूरी तैयारी के साथ सही ढंग से इस मंत्र के उच्चारण से मानव शरीर के भीतर ऊर्जा का विस्फोट हो सकता है। ‘शि’ की शक्ति को बहुत से तरीकों से समझा गया है। यह शक्ति अस्तित्व की प्रकृति है।

3-शिव शब्द के पीछे एक पूरा विज्ञान है। यह वह ध्वनि है जो अस्तित्व के परे के आयाम से संबंधित है। उस तत्व – “जो नहीं है” – के सबसे नजदीक ‘शिव’ ध्वनि है। इसके उच्चारण से, वह सब जो आपके भीतर है – आपके कर्मों का ढांचा, मनोवैज्ञानिक ढांचा, भावनात्मक ढांचा, जीवन जीने से इकट्ठा की गई छापें – वह सारा ढेर जो आपने जीवन की प्रक्रिया से गुजरते हुए जमा किया है, उन सब को सिर्फ इस ध्वनि के उच्चारण से नष्ट किया जा सकता है और शून्य में बदला जा सकता है। अगर कोई जरूरी

तैयारी और तीव्रता के साथ इस ध्वनि का सही तरीके से उच्चारण करता है, तो यह आपको बिल्कुल नई हकीकत में पहुंचा देगा।

4-स्थायी शांति, जिसे हम शिव कहते हैं, में जब ऊर्जा का पहला स्पंदन हुआ, तो एक नया नृत्य शुरू हुआ। आज भी, वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हुआ है कि अगर खाली स्थान में या उसके आस-पास भी आप इलेक्ट्रोमैगनेटिक ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं, तो सूक्ष्म आणविक कण प्रकट होते हैं और नृत्य करने लगते हैं। तो एक नया नृत्य शुरू हुआ, जिसे

हम सृजन का नृत्य कहते हैं।सृजन के इस नृत्य को – जो खुद ही स्थायी शांति से उत्पन्न हुआ – कई अलग-अलग नाम दिए गए। सृष्टि के उल्लास को प्रस्तुत करने की कोशिश में हमने उसे कई अलग-अलग रूपों में नाम दिया।

5-‘जो नहीं है’, उसका अर्थ है, अगर आप अपनी आँखें खोल कर आसपास देखें और आपके पास सूक्ष्म दृष्टि है तो आप बहुत सारी रचना देख सकेंगे। अगर आपकी दृष्टि केवल विशाल वस्तुओं पर जाती है, तो आप देखेंगे कि विशालतम शून्य ही, अस्तित्व की सबसे बड़ी उपस्थिति है। कुछ ऐसे बिंदु, जिन्हें हम आकाशगंगा कहते हैं, वे तो दिखाई देते हैं, परंतु उन्हें थामे रहने वाली विशाल शून्यता सभी लोगों को दिखाई नहीं देती। इस विस्तार, इस असीम रिक्तता को ही शिव कहा जाता है।

6-वर्तमान में, आधुनिक विज्ञान ने भी साबित कर दिया है कि सब कुछ शून्य से ही उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाता है। इसी संदर्भ में शिव यानी विशाल रिक्तता या शून्यता को ही महादेव के रूप में जाना जाता है। इस ग्रह के प्रत्येक धर्म व संस्कृति में, सदा दिव्यता की सर्वव्यापी प्रकृति की बात की जाती रही है। यदि हम इसे देखें, तो ऐसी एकमात्र चीज़ जो सही मायनों में सर्वव्यापी हो सकती है, ऐसी वस्तु जो हर स्थान पर उपस्थित हो सकती है, वह केवल अंधकार, शून्यता या रिक्तता ही है।

7-सामान्यतः, जब लोग अपना कल्याण चाहते हैं, तो हम उस दिव्य को प्रकाश के रूप में दर्शाते हैं। जब लोग अपने कल्याण से ऊपर उठ कर, अपने जीवन से परे जाने पर, विलीन होने पर ध्यान देते हैं और उनकी उपासना और साधना का उद्देश्य विलयन ही हो, तो हम सदा उनके लिए दिव्यता को अंधकार के रूप में परिभाषित करते हैं।

8-प्रकाश आपके मन की एक छोटी सी घटना है। प्रकाश शाश्वत नहीं है, यह सदा से एक सीमित संभावना है क्योंकि यह घट कर समाप्त हो जाती है। हम जानते हैं कि इस ग्रह पर सूर्य प्रकाश का सबसे बड़ा स्त्रोत है। यहाँ तक कि आप हाथ से इसके प्रकाश को रोक कर भी, अंधेरे की परछाईं बना सकते हैं। परंतु अंधकार सर्वव्यापी है, यह हर जगह उपस्थित है। संसार के अपरिपक्व मस्तिष्कों ने सदा अंधकार को एक शैतान के रूप में चित्रित किया है। पर जब आप दिव्य शक्ति को सर्वव्यापी कहते हैं, तो आप स्पष्ट रूप से इसे अंधकार कह रहे होते हैं, क्योंकि सिर्फ अंधकार सर्वव्यापी है। यह हर ओर है।

9-इसे किसी के भी सहारे की आवश्यकता नहीं है। प्रकाश सदा किसी ऐसे स्त्रोत से आता है, जो स्वयं को जला रहा हो। इसका एक आरंभ व अंत होता है। यह सदा सीमित स्त्रोत से आता है। अंधकार का कोई स्त्रोत नहीं है। यह अपने-आप में एक स्त्रोत है। यह सर्वत्र उपस्थित है। तो जब हम शिव कहते हैं, तब हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता की ओर होता है। इसी रिक्तता की गोद में सारा सृजन घटता है। रिक्तता की इसी गोद को हम शिव कहते हैं।

10-शिव शब्द या शिव ध्वनि में वह सब कुछ विसर्जित कर देने की क्षमता है, जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं। वह सब कुछ जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, फिलहाल आप जिसे भी ‘मैं’ मानते हैं, वह मुख्य रूप से विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, मान्यताओं, पक्षपातों और जीवन के पूर्व अनुभवों का एक ढेर है। अगर आप वाकई अनुभव करना चाहते हैं, कि इस पल में क्या है, अगर आप वाकई अगले पल में एक नई हकीकत में कदम रखना चाहते हैं, तो यह तभी हो सकता है जब आप खुद को हर पुरानी चीज़ से आजाद कर दें। वरना आप पुरानी हकीकत को ही अगले पल में खींच लाएंगे।

11-रोज, हर पल, कई दशकों का भार घसीटने का बोझ, जीवन से सारा उल्लास खत्म कर देता है।ज्यादातर लोगों के लिए बचपन की

मुस्कुराहटें और हंसी, नाचना-गाना जीवन से गायब हो गया है और उनके चेहरे इस तरह गंभीर हो गए हैं मानो वे अभी-अभी कब्र से निकले हों। यह सिर्फ बीते हुए कल का बोझ आने वाले कल में ले जाने के कारण होता है। अगर आप एक बिल्कुल नए प्राणी के रूप में आने वाले कल में, अगले पल में कदम रखना चाहते हैं, तो शिव ही इसका उपाय है।

12-तो जब हम शिवरात्रि कहते हैं जो कि माह का सबसे अंधकारपूर्ण दिन है, तो यह एक ऐसा अवसर होता है कि व्यक्ति अपनी सीमितता को विसर्जित कर के, सृजन के उस असीम स्त्रोत का अनुभव करे, जो प्रत्येक

मनुष्य में बीज रूप में उपस्थित है।महाशिवरात्रि एक अवसर और संभावना है, जब आप स्वयं को, हर मनुष्य के भीतर बसी असीम रिक्तता के अनुभव से जोड़ सकते हैं, जो कि सारे सृजन का स्त्रोत है।

13-एक ओर शिव संहारक कहलाते हैं और दूसरी ओर वे सबसे अधिक करुणामयी भी हैं। वे बहुत ही उदार दाता हैं।उनकी करुणा के रूप

विलक्षण और अद्भुत रहे हैं।महाशिवरात्रि को मानव शरीर में उर्जाएं कुदरती तौर पर ऊपर की ओर जाती हैं।इसलिए इस रात को हम सब जागें और अपनी रीढ़ सीधी रखें ताकि हम इस रात को मौजूद अद्भुत ऊर्जा के लिए उपलब्ध हो पाएं ।हम सभी इस रात को अपने लिए एक जागरण की रात बनाएं।

14-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति महेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिवहै।शिव ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म की परिभाषा है – ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।

15-शिव का अर्थ ही है कल्याणकारी , मंगलकारी और वह सदा आत्माओं का कल्याण करनेवाला है इसलिए वह सदाशिव है।शिवरात्रि हम सभी की शुभरात्रि है।हम शिवरात्रि के

समय उपवास रखते है और जागरण भी करते है लेकिन क्या उपवास ,जागरण करना ही इस शुभरात्रि का उद्देश्यहै। अगर हम मान भी ले तो उस दिन वॉच मेन भी जागते है तो क्या उनका जागरण नहीं हुआ। वास्तव में, आत्म जागृति की बात है जागरण की बात नहीं है ।

क्या अर्थ है आत्म जागृति का ?-

 

1-मनुष्य चेतना के दो आया है: एक मूर्च्छा, एक अमूर्च्छा। मूर्च्छा का अर्थ है सोये-सोये जीना; बिना होश के जीना। अमूर्च्छा का अर्थ है, होशपूर्वक जीना; जाग्रत, विवेकपूर्ण। मूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया बुझा है।अमूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया जला है।मूर्च्छा में रोशनी बाहर होती

है।बाहर की रोशनी से ही आदमी चलता है। जहां इंद्रियां ले जाती हैं, वहीं जाता है।क्योंकि अपने स्वरूप का तो कोई बोध नहीं। लोग जो समझा देते हैं, समाज जो बता देता है, वहीं आदमी चल पड़ता है क्योंकि न तो अपनी कोई जड़ें होती हैं अस्तित्व में, न अपना भान होता है। ‘मैं कौन हूं,’ इसका कोई पता ही नहीं।

2-अमूर्च्छित चित्त, जागा हुआ चित्त बिलकुल दूसरे ही ढंग से जीता है। उसके जीवन की व्यवस्था आमूल से भिन्न होती है। वह दूसरों के कारण नहीं चलता, वह अपने कारण चलता है। वह सुनता सबकी है। वह मानता भीतर की है। वह गुलाम नहीं होता। भीतर की मुक्ति को ही जीवन में उतारता है। कितनी ही अड़चन हो, लेकिन उस मार्ग पर ही यात्रा करता है जो पहुंचायेगा। और कितनी ही सुविधा हो, उस मार्ग पर नहीं जाता, जो कहीं नहीं पहुंचायेगा।

3-अमूर्च्छित व्यक्ति अपने भीतर अपने जीवन की विधि खोजता है। अपने होश में अपने आचरण को खोजता है। अपने अंतःकरण के प्रकाश से चलता है। कितना ही थोड़ा प्रकाश हो अंतःकरण का प्रकाश, सदा पर्याप्त

है।छोटे से छोटा दीया भी इतना तो दिखा ही देता है, कि एक कदम साफ हो जाए। एक कदम चल लो, फिर और एक कदम दिखाई पड़ जाता है। कदम-कदम करके हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।

4-जाग्रत स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है। तुर्या है -चौथी अवस्था। तुर्यावस्था का अर्थ है – परम ज्ञान।

तुर्यावस्था का अर्थ है कि किसी प्रकार का अंधकार भीतर न रह जाये, सभी ज्योतिर्मय हो उठे; जरा सा कोना भी अंतस का अंधकारपूर्ण न हो;सब ओर जागृति का प्रकाश फैल जाये।

अभी जहां हम हैं, वहां या तो हम जाग्रत होते हैं या हम स्‍वप्‍न में होते हैं या हम सुषुप्‍ति में होते हैं। चौथे का हमें कुछ भी पता नहीं है। जब हम जाग्रत होते हैं तो बाहर का जगत तो दिखाई पड़ता है, हम खुद अंधेरे में होते हैं; वस्तुएं तो दिखाई पड़ती हैं, लेकिन स्वयं का कोई बोध नहीं होता; संसार तो दिखाई पड़ता है, लेकिन आत्मा की कोई प्रतीति नहीं होती। यह आधी जाग्रत अवस्था है।

5- सुबह नींद से उठकर…जिसको हम जागरण कहते हैं ; वह अधूरा जागरण है। और अधूरा भी कीमती नहीं है; क्योंकि व्यर्थ तो दिखाई पड़ता है और सार्थक दिखाई नहीं पड़ता। कूड़ा -करकट तो दिखाई पड़ता है, हीरे अंधेरे में खो जाते हैं। खुद तो हम दिखाई नहीं पड़ते कि कौन हैं और सारा संसार दिखाई पड़ता है।दूसरी अवस्था है स्‍वप्‍न की। हम तो दिखाई पड़ते

ही नहीं स्‍वप्‍न में, बाहर का संसार भी खो जाता है। सिर्फ, संसार से बने हुए प्रतिबिंब मन में तैरते हैं। उन्हीं प्रतिबिंबों को हम जानते और देखते है – जैसे कोई दर्पण में देखता हो.. चांद को या झील पर कोई देखता हो ..आकाश के तारों को। सुबह जागकर हम वस्तुओं को सीधा देखते हैं; स्‍वप्‍न में हम वस्तुओं का प्रतिबिंब देखते हैं, वस्तुएं भी नहीं दिखाई पड़ती।

6-और तीसरी अवस्था है -जिससे हम परिचित है -बाहर का जगत भी खो जाता है; वस्तुओं का जगत भी अंधेरे में हो जाता है; और प्रतिबिंब भी नहीं दिखाई पड़ते; स्‍वप्‍न भी तिरोहित हो जाता है; तब हम गहन अंधकार में पड़ जाते हैं …उसी को हम सुषुप्ति कहते हैं। सुषुप्ति में न तो बाहर का ज्ञान रहता है,न भीतर का। जाग्रत में बाहर का ज्ञान रहता है। और जाग्रत और सुषुप्ति के बीच की एक मध्य कड़ी है: स्‍वप्‍न, जहां बाहर का ज्ञान तो नहीं होता, लेकिन बाहर की वस्तुओं से बने हुए प्रतिबिंब हमारे मस्तिष्क में तैरते है और उन्हीं का ज्ञान होता है।

7-चौथी तुर्या अवस्था है:वही सिद्धावस्था है। सारी चेष्टा उसी को पाने के लिए है। सब

ध्यान, सब योग तुर्यावस्था को पाने के उपाय हैं। तुर्यावस्था का अर्थ है: भीतर और बाहर दोनों का ज्ञान; अंधेरा कहीं भी नहीं— न तो बाहर और न भीतर, पूर्ण जागृति;जिसको हमने बुद्धत्व कहा है, जिसमें न तो बाहर अंधकार है, न भीतर, सब तरफ प्रकाश हो गया है; जिसमें वस्तुओं को भी हम जानते हैं, स्वयं को भी हम जानते है। ऐसी जो चौथी अवस्था है, वह कैसे पाई जाए ..इसके ही सब सूत्र हैं।

क्या हैं मां काली के चरणों के नीचे मुस्कराते

भगवान शंकर का रहस्य ?–

1-भगवती की दस महाविद्याओं में से एक हैं महाकाली जिनके काले और डरावने रूप की उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिए हुई थी। यह एकमात्र ऐसी शक्ति है जिनसे स्वयं काल भी भय खाता है। उनका क्रोध इतना विकराल रूप ले लेता है कि संपूर्ण संसार की शक्तियां मिलकर भी उनके गुस्से पर काबू नहीं पा सकती। उनके इस क्रोध को रोकने के लिए स्वयं उनके पति भगवान शंकर उनके चरणों में आकर लेट गए थे।

2-प्रकृति त्रिगुणमयी हैं। हमारे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश … तीनो प्रकृति के तीन गुणों (अग्नि, जल, आकाश) का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे सी क्यूब हैं ;अथार्त रचयिता, पालनकर्ता और विनाशकर्ता…। त्रिगुण ..जो वर्तमान में हैं, वही भविष्य में है,जो भविष्य में है, वही भूत में भी हैं।ये तीनों ही काल एक दूसरे के विरोधी हैं ,परन्तु आत्मतत्व स्वरुप से एक ही हैं।

3-मन के तीन अंग हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसीलिए इन तीनों अंगों के अनुरूप ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग का समन्वय हुआ।जब तक तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को सफलता नहीं मिल सकती ;अर्थात जब तक संसार में त्रिगुण के 6 प्रकार के मनुष्यो में शिव नहीं दिखता साधना(.5 ) में भी नहीं पहुंचती।वास्तव में,पहुंचना है तीनों के पार….साढ़े तीन में …3.5 में।त्रिगुण(.5 )हैं और दूसरा वह परब्रह्म (.5 ) हैं ;वह जहां कोई भी नहीं है, जहां तीनों नहीं हैं।यही हैं शक्तिसहित शिव अर्थात अद्वैत ब्रह्म। वह मूल शक्ति शिव ही हैं।

4-जीवन का मूल उद्देश्य है -शिवत्व की प्राप्ति।शक्ति के बिना ‘शिव’ सिर्फ शव हैं और शिव यानी कल्याण भाव के बिना शक्ति विध्वंसक।शक्ति जाग्रत करके शिव-मिलन कराना -यह क्रम समना तक चलता है।वास्तव में महाशिवरात्रि… रात्रि है,जाग्रत शक्ति को शिव भाव में मिलन कराने की। यही शिव और शक्ति साधना का रहस्य हैं।जो शक्ति जाग्रत करके शिवमिलन नहीं कराता वो रावण बनता हैं।और इस संसार में दोनों की ही आवश्यकता हैं..चाहे दिन और रात हो या श्रीराम और रावण।जीवन का मूल्य, मात्र सफलता में ही नहीं है।

5-सत्य के लिए हार जाना भी जीत है। क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और इन शिखरों को छू पाती है, जो कि

परमात्मा के प्रकाश में आलोकित हैं।सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं.. अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण।

6-भगवान शंकर महाकाली के चरणों में आकर लेट जाते है अथार्त विध्वंसक महाऊर्जा को आधार देकर महाकल्याणकारी बना देते है।अब ये हम पर निर्भर करता है कि ‘हम क्या है’, क्या हम दक्ष है जो अपनी शक्ति का शिव से विवाह नहीं कराना चाहता या ‘हिमालयराज’?दक्ष का परिणाम भी हम सभी को मालूम है।तो महाशिवरात्रि का मूल उद्देश्य है अपनी ऊर्जा का शिव से मिलन कराने का /अपनी ऊर्जा को शिव का आधार देकर कल्याणकारी बनाने का…।

संसार में दो प्रकार का सुख है। एक विषय सुख और दूसरा आध्यात्मिक सुख। दोनों विपरीत दिशाओं में रखें हैं। *”विषय सुख बाह्य इंद्रियों से मिलता है, जबकि आध्यात्मिक सुख अंदर से मिलता है। रूप रस गन्ध आदि विषयों का सुख, आंख रसना नाक आदि इंद्रियों से भोगा जाता है। जबकि आध्यात्मिक सुख अंदर से अर्थात मन से भोगा जाता है।”*

*”बाह्य विषयों का सुख और आंतरिक आध्यात्मिक सुख, किसी भी व्यक्ति को एक साथ प्राप्त होना दुष्कर है। “यदि वह बाह्य विषयों की ओर दौड़ता है, तो वह आध्यात्मिक सुख से वंचित हो जाएगा। जब वह आध्यात्मिक सुख के लिए प्रयत्न करेगा, तो उसे बाह्य विषयों के सुख छोड़ने पड़ेंगे।”*
बाह्य विषयों का सुख भोगने से व्यक्ति मन इंद्रियों का गुलाम या दास बन जाता है। उसका अपने मन इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रहता।” “जबकि आध्यात्मिक सुख भोगने वाला व्यक्ति अपने मन इंद्रियों का राजा बन जाता है। उसका अपने मन इंद्रियों पर नियंत्रण रहता है, और वह अपनी इच्छा के अनुसार मन इंद्रियों का उपयोग कर सकता है।”*
*”बाह्य विषयों का सुख आंख कान आदि बाह्य इंद्रियों से भोगा जाता है,” इस बात को सभी जानते हैं। इसलिए इसकी लंबी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है।” “धन खर्च करने पर, भोजन आदि वस्तुओं को खरीदने पर, इस विषय सुख को शीघ्र ही प्राप्त किया जा सकता है।”*
हां, *”जो आंतरिक सुख है, आध्यात्मिक सुख है, वह मन से प्राप्त होता है। उसकी प्राप्ति करने के लिए आपको शुभ कर्म करने होंगे। शुभ कर्मों के करने से वह सुख मन से मिलता है।” “जैसे ईश्वर का ध्यान करना प्रतिदिन यज्ञ करना माता पिता की सेवा करना गौ आदि प्राणियों की रक्षा करना
इन दोनों व्यवस्थाओं को समझें। *”बाह्य विषयों का सुख भोगने पर आपको आंतरिक सुख नहीं मिल पाएगा। और यदि आंतरिक सुख भोगना चाहते हों, तो बाह्य विषयों का सुख छोड़ना होगा।”*

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गिरीश
Author: गिरीश

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