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शांकर परम्परा से ही उपनिषदों को समझें –
रज्जुसर्पस्थल में आज तक कभी कल्पितसर्प में वास्तविक रस्सी व्याप्त न हुई । हॉ भ्रान्तपुरुषों ने अवश्य रज्जु को यथार्थरूप से सर्पात्मकस्वरूप वाला समझ लिया। शांकर सिद्धान्त में सर्प में रस्सी को केवल अधिष्ठानात्मक रूप से स्थित , अतः कल्पितव्याप्त ही समझा जाता है । कल्पना के साँप में यथार्थता की रस्सी कल्पना से ही व्याप्त हो सकती है, वास्तविकतया नहीं ; यही युक्ति तथा अनुभूति से संवलित औपनिषद सिद्धान्त है ।
ऐसे ही जगत् में आत्मा की कल्पितव्याप्ति होती है । शांकर सिद्धान्त से पृथक् जाकर ईशा वास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में उस कल्पितव्याप्ति को वास्तविक व्याप्तिरूपेण निरूपण करने वाले भ्रान्त ही हैं ।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
-श्रीमद्भगवद्गीता ९।५
( हे अर्जुन ! ) ब्रह्मादि सब प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं! तू मेरे इस ईश्वरीय योग को देख अर्थात् यथार्थ आत्मतत्त्व को समझ।
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#सन्मार्ग
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२__: भगवान् शंकराचार्य परम्परा से ही उपनिषदों को समझें —
ईशा वास्योपनिषद् में जगत् को ईश्वर से उपर से ढका हुआ (व्याप्त अर्थ में आच्छादित) बताना घोर अशास्त्रीय है । जगत् अज्ञानमूलक है, यह सर्वविदित है । घनघोर बादल से सूर्यप्रकाश की भाँति अज्ञान से ज्ञान का आवरण (अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्) – ऐसा तो सबने सुना है परन्तु उल्टे बांस बरेली की कहावत चरितार्थ करते हुए , क्या ज्ञान से भी कहीं अज्ञान आवृत होता है ? कदापि नहीं । वरन् ज्ञान से तो अज्ञान का नाश ही होता है ~ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः -गीता ५।१६
वस्तुतः जो जगत् को ईश्वर से व्याप्त = ढका हुआ बताते हैं , वे स्वयं ज्ञान के नाम पर अपने अज्ञान का ही गोपन करते हैं , इसीलिये अन्धकार को दूर करना छोड़कर उसी को ढक कर छिपाने वाला उनका स्वयंप्रकाश ईश्वर भी उन के जैसा ही होता है ।
[वास्यम् = आच्छादनीयम् के लिये प्रत्यगात्मतया – ऐसा तात्पर्य करना पड़ता है ]
अतः उपनिषदों के प्रामाणिक अध्ययन हेतु सार्वभौम जगद्गुरु श्री आद्य शंकराचार्य की वेदान्त गुरु परम्परा का ही अनुशीलन करें ।
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#सन्मार्ग
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