July 27, 2024 7:04 am
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विभिन्न योनियों में बन्दी जीव परमेश्वर के अंश हैं

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विभिन्न योनियों में बन्दी जीव परमेश्वर के अंश हैं, मायावादी दार्शनिक जीव को परमात्मा समझने की भूल कर बैठते हैं, वास्तव में परमात्मा एक मित्र के रुप में जीव के साथ रहता है।
श्रीभगवान का अन्तर्यामी पक्ष परमात्मा तथा जीवात्मा दोनों ही शरीर के अन्दर हैं, अतएव कभी कभी यह समझने में भूल हो जाती है कि दोनो में कोई अन्तर नहीं हैं,किन्तु जीवात्मा तथा परमात्मा के मध्य एक निश्चित अन्तर है।
“वराह पुराण” के अनुसार – “परमेश्वर के दो प्रकार के अंश होते हैं — जीव को विभिन्नांश कहते हैं, और परमात्मा अथवा परमेश्वर के पूर्ण अंश को स्वांश कहते हैं।
श्रीभगवान का स्वांश उन्हीं के समान ही शक्तिमान है। परमपुरुष तथा उनके पूर्ण अंश परमात्मा की शक्ति में रंचमात्र भी अन्तर नहीं है, किन्तु विभिन्नांश भगवान की शक्तियों के एक लघुतम अंश से ही युक्त है।
नारद पांचरात्रानुसार – परमात्मा की तटस्था -शक्ति- जीव आध्यात्मिक अस्तित्व की गुणवत्ता में भगवान के समान ही है , किन्तु उसमें भौतिक गुण भी रहते हैं, भौतिक गुणों के प्रभाव का भागी होने के कारण सूक्ष्म जीवात्मा को जीव कहा जाता है।
श्रीभगवान को शिव भी कहा जाता है “शिव का अर्थ सर्वकल्याणमय है”
अतः शिव तथा जीव के मध्य यह अन्तर है कि सर्वकल्याणमय श्रीभगवान पर भौतिक गुण कभी भी कोई प्रभाव नही डालते हैं, जबकि श्रीभगवान के सूक्ष्म अंश(जीव) भौतिक गुणों से प्रभावित हो जाते हैं।
किसी जीव विशेष के शरीर मे निवास करने वाले परमात्मा यद्यपि भगवान के एक अंश हैं , तथापि वे जीव द्वारा उपास्य है।
अतः महर्षियों ने ध्यान प्रक्रिया की संरचना इस प्रकार की है, जिससे जीव परमात्मा के रुप (श्री विष्णु) के चरणकमलों पर अपना ध्यान एकाग्र कर सके,यही समाधि का वास्तविक रुप है। जीव अपने ही प्रयासों द्वारा भौतिक बन्धनों से मुक्त नही हो सकता, अतः उसे परमेश्वर के चरणकमलों अथवा अपने अन्दर स्थित परमात्मा की भक्ति स्वीकार करना चाहिए।
श्रीधर स्वामी कहते हैं– “प्रिय भगवन् ! मैं सनातन रुप से आपका अंश हूँ ,किन्तु आपसे ही विकीर्ण होने वाली भौतिक शक्तियो के बन्धनों में बंध गया हूँ, समस्त कारणों के कारण रुप परमात्मा के रुप में आपने मेरे शरीर में प्रवेश किया है और आपके साथ परमानन्द ज्ञान के जीवन का उपभोग करना मेरा अधिकार है।
अतः हे भगवन् ! मुझे अपनी प्रेम सेवा का आदेश दीजिए , जिससे मैं पुनः दिव्यानन्द की अपनी स्थिति को प्राप्त कर सकूँ।”

गिरीश
Author: गिरीश

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