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*🚩🌺खालीपन का अहसास बताता है कि हम अपने दायरे में सिमट रहे हैं*
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*🚩🌺हमारा जीवन खोखला है और हम प्रेम-शून्य होते जा रहे हैं। हम इंद्रियों की सनसनाहट को जानते हैं, दिखावे और प्रदर्शन को जानते हैं, यौनाचार की ललक को जानते हैं। पर इनमें कोई प्रेम नहीं रहता। फिर, कैसे इस खोखलेपन में बदलाव लाया जाए, कोई कैसे उस लौ को पाएं जिसमें धुआं न हो? मुद्दे के सच को जानने के लिए आगे बढ़ते हैं।*
*🚩🌺हम बड़े सक्रिय रहते हैं, किताबें लिखने में लगे रहते हैं, सिनेमा जाते हैं, खेलते हैं, प्रेम करते हैं, काम पर जाते हैं, फिर भी हमारा जीवन खाली-खाली-सा, उबाऊ और एक नीरस दिनचर्या बन कर रह गया है। हमारे संबंध इतने दिखावटी, खोखले और इतने बेमानी क्यों हो गए हैं? हम अपने जीवन को इतना तो जानते ही हैं कि हमारे वजूद के कोई खास मायने नहीं हैं।*
*🚩🌺हम उन सूत्रों, सूक्तियों और विचारों को दोहराने में लगे रहते हैं जो हमें रटा दी गई हैं- महात्माओं की तरफ से, संतों से और हम किसी न किसी के पीछे ही चलते रहते हैं, वह चाहे धार्मिक हो, राजनीतिक हो या फिर बौद्धिक। हम केवल ग्रामोफोन रिकार्ड जैसे हो गए हैं- जो भर दिए गए को दोहराता चला जाता है, और इसी को हम ‘ज्ञान’ कह देते हैं। उसे हम कंठस्थ कर लेते हैं। उसी को बार-बार गाते रहते हैं, पर हमारा जीवन फिर भी उबाऊ और बेरंग बना रहता है।*
*🚩🌺कहने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम भावुक हो जाएं, भावना में बहने लगें। हम इस खोखलेपन को जानते हैं, खिन्नता के इस विचित्र एहसास से वाकिफ हैं। हमारे जीवन में इतनी नकारात्मकता आखिर क्यों है? निश्चित रूप से इसे हम केवल तभी समझ सकते हैं जब हम अपने रिश्तों में सजग रहकर, उनसे अवगत रह कर इसे देखेंगे। हमारे संबंधों में दरअसल हो क्या रहा है? क्या हमारे संबंध बस अपने ही बारे में सोचते रहने तक ही सीमित नहीं हैं?*
*🚩🌺क्या मन की हर गतिविधि खुद को बचाने, अपनी सुरक्षा चाहने और खुद को दूसरों से अलग समझने की प्रक्रिया भर नहीं है? क्या ऐसा नहीं है कि हमारी सोच बस खुद को अलग समझने की प्रक्रिया बनी रहती है। भले ही हम उसे सब के लिए सोचने का नाम दे देते हों, अपने जीवन में हम जो कुछ करते हैं, क्या वह खुद को अपने ही खोल में बंद किए रहने की प्रक्रिया नहीं है?*
*🚩🌺अपने जीवन में आप यह स्वयं देख सकते हैं। परिवार अपने आपको खुद में समेट लेने की और अलग कर लेने की प्रक्रिया बन कर रह गया है। और अलगाव होने के कारण निश्चय ही वह अक्सर वैर और विरोध की भूमिका में आ खड़ा होता है। हर गतिविधि हमें अलगाव की ओर ले जाने वाली हो गई है। और इसी से खोखलेपन और खालीपन का एहसास पनपने लगता है।*
*🚩🌺खाली होने के कारण ही तो हम इसे भरने की कोशिश करने लगते हैं रेडियो से, शोर-गुल से, गप्पें मारने से, पढ़कर ज्ञान अर्जित करने से, नाम या पैसा कमाने से, और सामाजिक हस्ती बन जाने जैसी अनेक बातों से। पर अपने आप को खुद में समेटने वाले काम ही तो हैं और इसलिए ये हमारे अलगाव को और बढ़ा देते हैं। तभी तो अधिकांश लोगों के लिए जीवन अलगाव की, नकारने की, प्रतिरोध की और किसी ढर्रे पर चलने की प्रक्रिया बन कर रह गया है। और निश्चित ही इस प्रक्रिया में जीवन दरअसल जीवन नहीं रह जाता है।*
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