पार्वती जी के अज्ञानता के अभिनय से हुआ “श्रीरामचरितमानस” का अवतरण!!!!
पार्वती जी ने भी अपने ‘सती-जन्म’ वाले अज्ञान का अभिनय करना शुरु कर दिया और भगवान शंकर से बोलीं—
यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी जानते हैं, तो हे प्रभो ! आप श्री रघुनाथ जी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए।
नाथ ! कल्पवृक्ष की छाया में जो रहता है, वह दरिद्र नहीं रह जाता। आप ज्ञान के कल्पवृक्ष हैं और मैं आपकी छाया में रहती हूँ। लेकिन ज्ञान रूपी धन से दरिद्र हूँ। मेरी इस दरिद्रता को दूर कीजिए। मैं हाथ जोड़ कर विनती कर रही हूँ। मैं अपने पहले जन्म के भ्रम के कारण आज भी दु:खी हूँ। मेरे इस दु:ख को दूर कीजिए। मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है।’
हे देवताओं के स्वामी ! मैं बहुत ही दीनता से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके श्रीरघुनाथ जी की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है। फिर श्रीरामचन्द्र जी के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होंने श्रीजानकी जी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा, सो किस दोष से ? फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए।
हे सुखस्वरूप शंकर ! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं ।फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जब श्रीरामचन्द्र जी प्रजा सहित अपने धाम को गए।’
पार्वती जी शंकर जी से कहती हैं कि आपने बतलाया था कि दशरथनंदन श्रीराम ‘ब्रह्म’ हैं । मैंने परीक्षा कर उन्हें ब्रह्म ही पाया; किंतु कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिससे बुद्धि में संतोष नहीं होता । जैसे—
ब्रह्म को अजन्मा (अज) कहा जाता है; किंतु श्रीराम तो महाराज दशरथ और कौंसल्या से जन्मे हैं, फिर वे ‘अज’ कैसे हुए ?
ब्रह्म को ‘ज्ञानरूप’ कहा जाता है; किंतु श्रीराम तो पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछ रहे थे –
“हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ।।”
क्या उन्हें यह भी ज्ञान नहीं था कि पेड़-पौधे और पशु-पक्षी उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकेंगे ।
ब्रह्म को ‘निराकार’ माना जाता है; किंतु श्रीराम तो हाड़-मांस के बने मानव हैं ।
ब्रह्म ‘अमर’ होता है; किंतु दशरथनंदन श्रीराम तब पृथ्वी पर थे; किंतु आज नहीं है ।
ब्रह्म ‘व्यापक’ माना जाता है । श्रीराम यदि ब्रह्म होते तो वे व्यापक होते; फिर महाराज दशरथ को उनके वियोग में मरना नहीं चाहिए था ?
इसके अलावा श्रीराम जी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए।
आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है।हे प्रभो ! जो बात मैंने न भी पूछी हो, उसे भी आप छिपा कर न रखिएगा।
वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है।’
पार्वती जी के सरल, सुंदर और छलरहित प्रश्न शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे। शंकर जी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया।
पार्वती जी ने अज्ञानता का ऐसा उत्तम अभिनय किया कि भगवान शंकर को उनके अज्ञान पर तरस आ गया और उन्होंने मीठा व्यंग्य करते हुए कहा—
‘हे पार्वती ! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है । तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं । जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं ।’
रामायण के सबसे प्राचीन आचार्य भगवान शंकर ही हैं । उन्होंने राम-चरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में किया । भगवान शंकर ने पार्वती जी को समझाने के लिए स्वचरित ‘मानस’ सुनाते हुए कहा—श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है । फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी ! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो ।
हे पार्वती ! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा, जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ जी ने सुना था, वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा । अभी तुम श्रीरामचन्द्र जी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो ।
भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हैं—
जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्र जी मेरे स्वामी हैं—ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया ।
श्रीरामचन्द्र जी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं । वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता।
हे पार्वती ! जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे तारक (राम) मंत्र देकर शोकरहित कर देता हूँ, मुक्त कर देता हूँ । वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं।
हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान—ये सब जीव के धर्म हैं । श्रीरामचन्द्र जी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं । इस बात को सारा जगत जानता है ।
पार्वती जी ने कहा—‘नाथ ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई ।’
भगवान शंकर द्वारा पार्वती जी को सुनाया गया वही ‘मानस’ आज हम सब के बीच है । अंतर केवल इतना है कि पहले यह ‘देववाणी’ में था, आज लोक-भाषा ‘अवधी’ में है ।
इस तरह सती और पार्वती जी ने अपने अज्ञान का अभिनय कर भगवान शंकर के हृदय में छिपी अनमोल वस्तु ‘श्रीरामचरितमानस’ मानव के कल्याण के लिए संसार को दिला दी ।
🚩🙏 ॐ नमः शिवाय 🚩🙏