*प्रश्न – हमारे महापुरुषों ने हमारे धर्म को “सनातन धर्म” क्यों कहा है?*
उत्तर – हमारे महापुरुषों ने हमारे धर्म को “सनातन धर्म” इसीलिये ही कहा है; क्योंकि जो सनातन आत्मा है, हम उसी “सनातन आत्मा” को ही अपना रूप अर्थात् स्वरूप मानते हैं, इस शरीरको नहीं और जो इस शरीरको ही अपना रूप मानते हैं, उनको सनातनी कहना भी पाप है; इस शरीरको ही अपना रूप मानने वाले धर्म कर ही नहीं सकते हैं; क्योंकि वे तो शुरूआत ही अधर्म से ही कर रहे होते हैं।
प्रश्न – आत्मा को “सनातन” क्यों कहा जाता है?
उत्तर – आत्माको “सनातन” इसीलिये ही कहा जाता है; क्योंकि भगवान् ने आत्मा को ही स्वरूप बताया है और आत्मा को ही “सनातन” और ‘पुरातन’ भी कहा है एवं यही हम सभी के अनुभव से भी सिद्ध हो रहा होता है। अर्थात् –
न जायते म्रियते वा कदाचि –
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो –
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, “सनातन” और ‘पुरातन’ है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।।२०।।
इस अपने रूप अर्थात् स्वरूप आत्मा से इस शरीर का सम्बन्ध तो ऐसा ही होता है –
वासांसि जीर्णानि यथा विहाज्ञ
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा –
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्याकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।।२२।।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।१८।।
यहां जीवात्मा भी भगवान् ने उसीको ही कहा गया है, जो अपने अज्ञानके वशमें होकर इस शरीरको ही अपना रूप मान लेते हैं और यहां जीवात्माके लिये ही भगवान् कहते हैं कि –
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस बिषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।।१३।।
और इसी अपने रूप अर्थात् स्वरूप आत्माके लिये ही भगवान् अर्जुन से भी कहते हैं कि –
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।१२।।
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् – दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।।१७।। (गीता अ० २)
आजकल के जो ये बाबा-साधू अथवा संन्यासी एवं कथावाचक आदि बने हुए हैं; ये सभी अधिकतर अपना रूप इसी शरीरको मानने वाले ही होते हैं; इसीलिये ही ये लोग अपने शरीरका अहंकार अर्थात् वर्ण (जाति) आश्रम आदि का अहंकार करते हैं और ये सभी लोग अपने-अपने कर्त्तव्यकर्मों का पालन न करके, इसी शरीरको ही सजाने-संवारने में भी लगे हुए पाये जाते हैं। इसीलिये ऐसे इन लोगों को सनातनी कहा ही कैसे जा सकता है?
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