”भक्ति मुक्त करती है” भगवान शिव कहते है: – ”भक्ति मुक्त करती है”। यह सूत्र एक अर्थ में बहुत सरल, और दूसरे अर्थ में अत्यंत कठिन। ’भक्ति मुक्त करती है। परंतु भक्ति क्या है जो मुक्त करती समझना जरूरी है। नारद पुराण में लिखा है कि ” परमेश्वर के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है।
यह अमृतस्वरूपा है। इस परम दुर्लभ भक्ति को प्राप्त करने वाला साधक , सिद्ध-पुरुष , तथा सर्वथा संतुष्ट हो जाता है। भक्ति को प्राप्त करके व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करता न किसी के प्रति द्वेषभाव रखता है , न किसी विषय में आसक्त होता है।
प्रेय तथा श्रेय मार्गों के अनुसार ही अनुरक्तियां भी अपरा (सांसारिक) तथा परा (ईश्वरीय) दो प्रकार की हैं। अपरा अनुरक्ति का संबंध प्रेयमार्ग से है। यह जीव को विविध सांसारिक प्रलोभनों , यथा- लोकेषणा , पुत्रेषणा तथा वित्तेषणा में भटका कर उसका सर्वस्व हनन करती है।
अत: महर्षि शांडिल्य ने ‘ परा अनुरक्ति ‘ का उल्लेख किया है। यह ईश्वरीय प्रेम है। चित वृत्तियों को ईश्वरोन्मुख करना, राज-सुख को भी ठुकरा कर प्रभु भक्ति में लीन हो जाना परम सुख है। यही श्रेय मार्ग है। महर्षि कहते हैं , ‘ भक्ति वह है , जिसमें ईश्वर के प्रति परा अनुरक्ति हो।
आध्यात्मिक अनुभूति के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों की परम्परा ही भक्ति है , जिसका प्रारम्भ साधारण पूजा-पाठ से होता है। और अंत ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में। भक्ति की अनेक परिभाषाएं दी जा चुकी हैं तथा अभी अगणित परिभाषाएं संभव हैं।
पृथक पृथक होते हुए भी इन सब परिभाषाओं के मूल में केवल एक प्रेमतत्व ही विविध शब्दावली के माध्यम से झलक रहा है। विज्ञान भैरव तंत्र में दो प्रकार की विधियां है। एक उनके लिए है जो मस्तिष्क प्रधान, विज्ञानोन्मुख है। और दूसरी उनके लिए है जो ह्रदय प्रधान है।
भावोन्मुख है, कवि है। और दो ही तरह के मन है—वैज्ञानिक मन और काव्यात्मक मन। और इनमें जमीन आसमान का अंतर है। वे एक दूसरे से नहीं मिलते ,कभी-कभी वे समानांतर चलते ,लेकिन मिलते नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई आदमी कवि भी है और वैज्ञानिक भी।
कोई व्यक्ति कवि और विज्ञानी दोनो हो तब उसका व्यक्तित्व खंडित होगा। तब वह यथार्थ में दो होगा, एक नहीं। जब वह कवि होता है तब वैज्ञानिक नहीं होता। अन्यथा वैज्ञानिक समस्या उत्पन्न करेगा। जब वह वैज्ञानिक होता है तो अपने कवि को बिलकुल भूल जाता है।
तब वह दूसरे जगत में प्रवेश करता है …जो धारण, विचार, तर्क, बुद्धि और गणित का जगत है। और जब वह कविता के जगत में विचारण करता है तो वहां गणित नहीं, संगीत होता है। वहां धारणाएं नहीं होती, वहां शब्द होते है। वहां एक शब्द दूसरे शब्द में प्रवेश कर जाता है।
वहां एक शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है। वहां व्याकरण खो जाता है सिर्फ काव्य रहता है। दोनों ही एक अलग दुनिया है। विचारक और भावुक, अथार्त वायु और जल तत्व ,ये दो प्रकार के व्यक्ति है। वायु तत्व,बौद्धिक मन श्रेष्ठ है या जल तत्व, भावुक मन श्रेष्ठ है। वे सिर्फ तत्व है।
ऊंच-नीच की कोई बात नहीं है। भावुक कोटि के लोगो के लिए है क्योंकि भक्ति किसी और के प्रति होती है। भक्ति में दूसरा तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है और यह श्रद्धा है। वायु तत्व किसी पर श्रद्धा नहीं कर सकता। वह सिर्फ आलोचना या संदेह कर सकता है।
वायु तत्व का मनुष्य प्रमाण खोजता है और वह पाता है कि प्रमाण ठोस है, तो ही विश्वास करता है। लेकिन यही वह चूक जाता है। क्योंकि आस्था तर्क नहीं करती है और न आस्था प्रमाणों पर आधारित है। अगर प्रमाण उपलब्ध है तो आस्था की जरूरत ही नहीं है।
आप सूरज में विश्वास नहीं करते, आसमान में विश्वास नहीं करते हो, तुम बस उन्हें जानते हो। तुम यह नहीं कहते कि हां, मैं विश्वास करता हूं। मैं यह जानता हूं। विश्वास या अविश्वास का प्रश्न ही नहीं है। वही श्रद्धा का अर्थ है बिना किसी प्रमाण के अज्ञात में छलांग।
भक्ति अपने इष्ट के प्रति ऐसा समर्पण भाव है, जो हमारे मन में यह विश्वास जगाता है कि उसकी शरण में हम सदा शांति, सुचित्त, सुरक्षित व सदाचारी रहेंगे। साथ ही, संतुष्टि, तृप्ति, तटस्थता, आध्यात्मिक चेतना और अनंत सद्वविचार से एक- चित्त होकर यह बहुमूल्य जीवन जिएंगे।
वायु तत्व के मनुष्य के लिए यह कठिन है। उसे पहले प्रमाण चाहिए। अगर तुम कहते हो कि ईश्वर है और उसके प्रति समर्पण करना है, तो पहले ईश्वर को सिद्ध करना होगा। लेकिन तब ईश्वर एक प्रमेय हो जाता है;जो सिद्ध तो हो जाता है पर व्यर्थ हो जाता है।
ईश्वर को असिद्ध ही रहना है; क्योंकि तब श्रद्धा अर्थहीन हो जाती है। अगर तुम एक सिद्ध किए हुए ईश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हारा ईश्वर एक प्रमेय मात्र है। जो सिद्ध किया जा सकता है वह श्रद्धा के लिए आधार नहीं हो सकता।
श्रद्धा और भक्ति में अंतर है। वास्तव में, दोनों आपस में दूध पानी की तरह इस प्रकार घुल गए हैं कि अलग से पहचानना कठिन है। श्रद्धा श्रेष्ठ के प्रति होती है और भक्ति आराध्य के प्रति। श्रद्धा अनुशासन में बंधी है जिसमें आदर की सरिता बहती तो भक्ति में प्रेम का समुद्र लहराता रहता है।
श्रद्धा स्थिर होती है और भक्ति मचलती रहती है। विनय दोनों में है, किंतु श्रद्धा का भाव तर्क वितर्क कर ताने-बाने बुनता रहता है, तो भक्ति अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर खुद को उड़ेलती रहती है। दरअसल जिस प्रकार बादल के साथ पानी की बूंदे जुड़ी रहती हैं।
उसी तरह से भक्ति भी श्रद्धा का एक रूप ही है। बाहर से देखने पर बादल की तरह और छू देने पर बूंदें गिरने लगें। भक्ति का पलड़ा केवल इसलिए भारी है कि इसके साथ प्रेम भी जुड़ा है। प्रेम संसार का ऐसा तत्व है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
भगवान भाव के भूखे होते हैं। इसी प्रेम की पुकार पर भगवान प्रकट होते हैं और जन-जन के कष्टों का निवारण करते हैं। यह प्रेम भक्ति का ही एक रूप है। भक्ति की लता प्रेम की डोर पर चढ़ कर ही अपने आराध्य तक पहुंचती है। प्रेम की यह डोर भक्त को भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है।
प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई हमें अच्छा लगे, पर श्रद्धा के लिए आवश्यक यह है कि वह गुणवान होने के कारण हमारे सम्मान का पात्र हो। प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार। किसी मनुष्य से प्रेम रखने वाले एक दो ही मिलेंगे।
पर उस पर श्रद्धा रखने वाले सैकड़ों, हजारों, लाखों क्या करोड़ों मिल सकते हैं। सच पूछिए तो इसी श्रद्धा के आश्रय से उन कर्मों के महत्तव का भाव दृढ़ होता है जिन्हें धर्म कहते हैं और जिनमें मनुष्य समाज की स्थिति है। श्रद्धा यहां पर मात्र भक्ति को पुष्ट करने का काम करती है।
इसीलिए कहा गया है कि श्रद्धा और भक्ति एक-दूसरे की पूरक हैं। शरीर और आत्मा की भांति एक दूसरे से जुड़ी हुईं। ज्ञान सहित भक्ति ही हमें मुक्त करती है। श्रद्धा का अर्थ है किन्हीं कारणों के बिना अज्ञात में छलांग, सिर्फ भावपूर्ण व्यक्ति ही यह कर सकता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि केवल परमात्मा के पूजन, ध्यान, स्मरण में लगे रहना ही भक्त होने का लक्षण नहीं है। भक्त वह है, जो द्वेषरहित हो, दयालु हो, सुख-दुख में अविचलित रहे, बाहर-भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी हो, चिंता व शोक से मुक्त हो, कामनारहित हो।
शत्रु-मित्र, मान-अपमान तथा स्तुति-निंदा, सफलता असफलता में समभाव रखने वाला मननशील हो । हर परिस्थिति में खुश रहने का स्वभाव बनाए रखे। उससे न किसी को कोई असुविधा हो और वह किसी से असुविधा या उद्वेग का अनुभव करे।
जो पुरुष सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित होकर सबको प्रेम करने वाला तथा सब पर समान रूप से दयाभाव रखता है। ममता और अहंकार से दूर है, दु:ख-सुख की प्राप्ति में सम व क्षमावान है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट स्थिति में रहता है।
मन व इन्द्रियों को अनुशासित रखता , मुझमें दृढ़ श्रद्धा के साथ जुड़ा है, ऐसा मेरा भक्त मुझे बहुत प्रिय है। स्पष्ट है कि भक्त होने का मनोभाव रखने वाला व्यक्ति यदि उपरोक्त भाव धारा को ग्रहण करता है तो ही उसकी भक्ति सार्थक है। प्रथम प्रेम को समझो ।
और तब तुम भक्ति को भी समझ सकोगे। प्रेम में दूसरा तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। जहां तुम्हें अपना होश न रहे, दूसरा ही रह जाए, तो वही प्रेम भक्ति बन सकता है। प्रेम पहला चरण है, तभी भक्ति का फूल खिलता है। अगर प्रेम उर्धगमन हो तो भक्ति बन जाता है।
यदि प्रेम गहरा हो तो दूसरा ज्यादा, अर्थपूर्ण हो जाता है। मीरा जिनका सब कुछ श्रीकृष्ण के लिए समर्पित था। वे श्रीकृष्ण जी से बहुत प्रेम करती थीं। यहां तक कि श्रीकृष्ण को ही वे अपना पति मान बैठी थीं। भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है।
न श्रीकृष्ण को कोई देख सकता है , न मीरा इसे सिद्ध कर सकती है कि श्रीकृष्ण वहां है। लेकिन मीरा इसे सिद्ध करने में उत्सुक नहीं है। मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना प्रेम-पात्र बना लिया है। यह सारा रूपांतरण भक्ति के माध्यम से आता है।
‘’भक्ति मुक्त करती है।‘’ कल्पना करो कि तुम खुले आकाश के नीचे हो सर्वथा बंधनहीन, सर्वथा मुक्त; लेकिन एक कारागृह में ही हो। क्योंकि तुम्हारे उड़ने के लिए आकाश न रहा। इस आकाश में पक्षी उड़ते है; लेकिन तुम न उड़ सकोगे।
तुम्हारे उड़ने के लिए एक भिन्न आकाश चेतना के आकाश में जरूरत है। कोई दूसरा “हूं” तुम्हें वह आकाश दे सकता है।और वह केवल ईश्वर ही हो सकता है ;तो जब तुम उसमें प्रवेश करते हो, तभी तुम उड़ सकते हो। जब प्रेम भक्ति बनता है तो ही वह समग्र स्वतंत्रता बनता है।
उसका मतलब है कि तुमने पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया। इसलिए ये सूत्र ‘भक्ति मुक्त करती है। उनके लिए है जो भाव प्रधान है। *यह रचना मेरी नहीं है। मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🌷*