रुद्राक्ष की श्रेणियां एवं श्रेष्ठ रुद्राक्ष लक्षण ।।।
(१) रंगभेद से रुद्राक्ष चार प्रकार का होता है ।
1. श्वेत वर्ण
2. रक्त वर्ण
3. पीतवर्ण
4. कृष्ण वर्ण
श्वेत रक्त पीत कृष्णा वर्णा ज्ञेया क्रमाब्दुधे ।
( विद्यश्वर संहिता/अध्याय २५)
(२) मुखभेद के अनुसार रुद्राक्ष चौदह प्रकार का होता है। जैसे कि एक मुखी, दो मुखी, तीन मुखी, चार मुखी आदि क्रम से १४ मुखी तक ।
(३) ‘देवी भागवत् पुराण’ के अनुसार अड़तीस प्रकार का भी रुद्राक्ष का वर्णन है। सूर्य नेत्र से कपिल वर्ण के १२ प्रकार के रुद्राक्ष उत्पन्न हुए तथा सोम नेत्र से उत्पन्न हुए रुद्राक्ष श्वेत वर्ण के सोलह प्रकार के हुए और वह्नि नेत्र से उत्पन्न हुए रूद्राक्ष कृष्ण वर्ण के दस भेद वाले हुए ।
बभूयुस्ते च रुद्राक्षा अर्द्धांत्रशत्प्रभेदतः ।
सूर्यनेत्रसमुद्भूताः कपिला द्वादश स्मृता ॥ell
सोमनेत्रोत्थितःः श्वेतास्ते षोडशविधा क्रमात् ।
बह्मिनेत्रोद्भवाः कृष्णा दशभेदा भवन्ति हि । १०॥
(देवी भागवत्/११ स्कन्ध/अ० ४)
श्वेतवर्ण रुद्राक्ष वर्ण से ब्राह्मण, रक्त वर्ण रूद्राक्ष वर्ण से क्षत्रिय, मिश्र वर्ण (पीत वर्ण) रुद्राक्ष वर्ण से वैश्य तथा कृष्ण वर्ण रुद्राक्ष शूद्र वर्ण का कहलाता है ।
श्वेतवर्णश्च रूद्राक्षोजातितो ब्राह्म उच्यते ।
क्षात्त्रोरक्तस्तथा मिश्रो वैश्यः कृष्णस्तु शुद्रकः ॥११॥
(देवी भागवत्/११ स्कन्ध/अ० ४)
शास्त्रीय आधार पर श्रेष्ठ रुद्राक्ष ।
आमलकी फल के समान आकार वाला रुद्राक्ष श्रेष्ठ होता है । बदरीफल के समान के आकार वाला रुद्राक्ष मध्यम होता है तथा चने के मात्रा के समान के आकार वाला रुद्राक्ष अधम कहा गया है,
धात्रीफल प्रमाणं यच्छ ष्ठये तदुदाहृतम् ।
बदरीफल मात्रं तु मध्यम सत्रको तितम् ॥१४।।
अधम चण मात्रं स्यात्प्रक्रियेषापरोच्यते ।।१५।।
(विद्येश्वर संहिता/अध्याय २५)
जिस रुद्राक्ष में स्वयं छिद्र का निर्माण हुआ हो वह रुद्राक्ष उत्तम है तथा मनुष्य द्वारा किया गया छिद्र वाला रुद्राक्ष अधम है ।
स्वयमेवकृत द्वारं रुद्राक्षंस्यादिहोत्तमम् । यत्क्षुपौरुष यत्नेन कततन्मध्यम भवेत् ।।२३।।
(विद्येश्वर संहिता/अ० २५)
पुनः रुद्राक्षों में भद्राक्ष धारण का बड़ा पुण्य माना गया है । आमले के समान आकार का रुद्राक्ष श्रेष्ठ है ।
रुद्राक्षाणां तु भद्राक्ष धारणात्स्यान्महाफलम् ।
धात्रीफल प्रमाणं यच्छष्ठमेतदुदाहृतम् ॥६॥
(देवी भागवत/११ स्कन्ध/अध्याय ७)
बेर के सदृश का रुद्राक्ष मध्यम दर्जे का तथा चने के सदृश का रुद्राक्ष अधम माना गया है ।
बदरीफल फलमात्रं तु प्रोच्यते मध्यमंबुधैः ।
अधम चण मात्र स्यात्प्रतिज्ञेषामयोदितः ।।७।।
(देवी भागवत/११ स्कन्ध/अ० ७)
सम ,स्निग्ध, दृढ़, गोल दानों को रेशम के धागों में पिरो कर पहनना चाहिए । जब रुद्राक्ष शरीर में साम्यतापूर्वक अद्भुत विलक्षण गुण धारण करे। जैसे कि कसौटी पर सोने का घर्षण करने से रेखा पड़ जाती है, ठीक इसी प्रकार कसौटी पर जिस रुद्राक्ष को घिसने से रेखा पड़ जाय उस उत्तम रुद्राक्ष को शिव भक्तों को धारण करना चाहिए ।
समान्स्निग्धान्दृढान्बुतान्क्षौमसूत्रेणधारयेत् ।।१३।।
सर्वगात्रषु साम्येन समानाऽतिविलक्षण ।
निघर्षे हेमलेखाभा यत्र लेखा प्रदृश्यते ।।१४।।
(देवी भागवत/११ स्कन्ध)
समाः स्निग्ग्रा दृढ़ास्तद्वत्कष्टकैः संयुता शुभा ।।
रुद्राक्ष की उत्पत्ति स्थान ।
‘शिव महापुराण’ के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति स्थान गौड़देश तथा शिव के प्रिय स्थान मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्यपर्वत, काशी तथा दूसरे कई अन्य देशों में भी पापनाशक स्थान है ।
यया-भूमोपोडोभ्दवांश्चक्रे रुद्राक्षाञ्छिवेवल्लभान ।मथुरायामयोध्यायांलंकायांमलयेतथा
सह्याद्रौचतथा काश्यांदेशेध्वग्येषुवातथा परानसह्यपापौघभेदनाछतिनोदनान् ॥१०॥