❗कैसे करें नियंत्रण, क्रोध पर❗
क्रोध जीवन का ऐसा नकारात्मक भाव है, जो कभी भी हमारे जीवन में प्रकट हो जाता है। यदि किसी को क्रोध करने की आदत हो गई है, क्रोध करने की प्रकृति हो गई है, तो वह क्रोध किए बिना रह नहीं पाता । बात-बात पर अपनी नाराजगी दिखाना, क्रोध करना अधिकांश लोगों के जीवन का स्वभाव हो गया है। जब क्रोध का यह गुबार उतरता है तो मन में पछतावा भी होता है कि अनावश्यक क्रोध किया गया, क्रोध करने से इतना नुकसान हो गया।
जब भी हमारा कोई कार्य पूरा नहीं होता, हमारे मन के अनुसार नहीं होता, जो हमें चाहिए, वह नहीं मिलता, इच्छा के विपरीत कार्य होता है, जबरदस्ती किसी कार्य को करना पड़ता है तो क्रोध आ जाता है। कहीं पर क्रोध प्रकट रूप में होता है और कहीं पर क्रोध आंतरिक भाव में होता है। प्रकट रूप में जो क्रोध आता है, उसका प्रभाव उपस्थित जनों पर भी पड़ता है, जिसके ऊपर आता है, अगर वह उपस्थित है तो उसे थोड़ी-बहुत हानि भी पहुँच सकती है; क्योंकि क्रोध एक तरह की नकारात्मक ऊर्जा है, जिसका प्रक्षेपण क्रोध के समय होता है। यदि व्यक्ति का इस प्रक्षेपण पर नियंत्रण है तो ज्यादा परेशानी नहीं होती, लेकिन यदि इस प्रक्षेपण-प्रक्रिया पर नियंत्रण नहीं है, तो परेशानी हो सकती है।
क्रोध का आवेग जब व्यक्ति में धीमा होता है तो यह नियंत्रण में होता है, लेकिन यदि क्रोध का आवेग बहुत ज्यादा है तो व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण नहीं होता। उस समय उसके अंदर सुनने-समझने की शक्ति नहीं होती। उस अवस्था में वह क्या करेगा, उसे स्वयं भी पता नहीं होता। वह कुछ भी कर सकता है; क्योंकि उस अवस्था में ऊर्जा का आवेग बहुत ज्यादा होता है। जिस तरह दूध जब उबलने लगता है तो उफनता है और यदि आँच को धीमा न किया जाए तो वह उफन कर बरतन से बाहर गिर जाता है, यही स्थिति क्रोध के समय व्यक्ति की होती है। उसकी ऊर्जा भी क्रोधरूपी तेज आँच के कारण उफन-उफनकर तेजी से बाहर गिरती है और उसके क्रोध को प्रकट करती है।
क्रोध की अवस्था में व्यक्ति यदि इस ऊर्जा को निकाल देता है तो जल्दी शांत भी हो जाता है और यदि इस ऊर्जा को दबा देता है तो वह कुंठा बन जाती है। अचेतन की परतों में दबती चली जाती है। क्रोध की अवस्था में ज्यादातर लोग दो तरह के तरीके अपनाते हैं- या तो वे अपने से कमजोर व्यक्ति पर अपना क्रोध, तेज आवाज में बोलकर या उसे नुकसान पहुँचाकर उतारते हैं या फिर सामान उठाकर इधर-उधर फेंककर अपने मन की भड़ास निकालते हैं। दूसरे तरीके में वे अपने क्रोध को दबा देते हैं, सहन कर लेते हैं। लेकिन ऐसा करने पर क्रोध दीखने में शांत दीखता प्रतीत होता है, दब जाता है, लेकिन यह दबा हुआ क्रोध, मन में घाव के रूप में रिसता रहता है और अचेतन को प्रभावित करता रहता है।
कहते हैं कि जब बहुत सन्नाटा दीखता है तो यह आने वाले तूफान की ओर इशारा करता है। जब पृथ्वी के अंदर टेक्टोनिक प्लेटों पर दबाव बढ़ता है, तभी भूकंप आता है। पृथ्वी की कमजोर सतहों से ही ज्वालामुखी फूटता है। इसी तरह भूकंप की तरह हिलाने वाले और तूफान की तरह आने वाले क्रोध की ऊर्जा को दबा कर हम भले ही शांत हो जाएँ, लेकिन कभी भी इस ज्वालामुखी रूपी क्रोध के फूटने की आशंका बनी रहती है।
इसी कारण मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग कहते हैं कि ‘यदि हम क्रोध या गुस्से को दबाने का प्रयास करते हैं, तो वह अचेतन में जाकर हमारे भीतर ही उमड़ता- घुमड़ता रहता है, जब तक उसे निकास का द्वार नहीं मिलता। यदि उसे सही रूप में बाहर निकलने का द्वार नहीं मिलता तो वह विस्फोट की तरह कभी भी फट पड़ता है।’ इसलिए बहुत जरूरी है कि क्रोध के रूप में मन की अचेतन परतों में दबी हुई ऊर्जा का सकारात्मक रूप से प्रयोग किया जाए, इस ऊर्जा को बाहर निकलने के लिए सही दिशा व सही रूप दिया जाए। यदि हमें अपने समाज में हिंसा कम करनी है तो भी मनुष्यों के अंदर दबे हुए क्रोध को सकारात्मक रूप से बाहर निकलना बहुत जरूरी है।
सहन करना एक सीमा तक ठीक है, जहाँ तक इससे किसी का अहित न जुड़ा हो, लेकिन अन्याय को सहन करना इसे प्रश्रय देना है, बढ़ावा देना है। इसलिए प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद कहते थे कि ‘अन्याय सहना अन्याय करने से अधिक गलत है।’ हमारे देश भारत को कभी भी आजादी नहीं मिलती, यदि हम सब भी अँगरेजों के अत्याचार को सिर झुकाकर सहते जाते। यही बात रोजमर्रा की जिंदगी पर भी लागू होती है। हर छोटी-छोटी बात पर अपनी क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया देना तो कदापि उचित नहीं, लेकिन यदि किसी अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने या उसका प्रतिकार करने से किसी का हित हो, समाज का हित हो तो हमें ऐसा करने से हिचकना नहीं चाहिए।
मन में दबे हुए क्रोध को बाहर निकालने से ही चित्त शांत हो सकता है, लेकिन इस ऊर्जा को बाहर निकालने का रूप सकारात्मक होना चाहिए; क्योंकि क्रोध की सही अभिव्यक्ति हमें सुरक्षा भी प्रदान कर सकती है और अनावश्यक भावों को मुक्त भी कर सकती है। इस बारे में एक छोटी-सी कहानी है कि एक सर्प सबको बहुत फुफकारता और डंसने का प्रयास करता था। सभी उससे बहुत भयभीत रहते थे। एक बार एक महात्मा वहाँ से गुजरे, उन्होंने उसे समझाया और उसे डंसने के लिए मना किया। वह सर्प उनकी बात मान गया। कुछ दिनों के बाद जब वही महात्मा उस रास्ते पर वापस लौटे तो उन्होंने उस सर्प की दयनीय दशा देखी- वह खून से लथपथ रास्ते पर पड़ा हुआ था। महात्मा ने उससे पूछा कि उसकी ऐसी हालत कैसे हो गई ? उसने जवाब दिया कि अब वह लोगों को डंसता नहीं है तो लोग उससे नहीं डरते, उस पर पत्थर मारते हैं। यह सुनकर महात्मा ने सर्प को समझाया कि मैंने तुम्हें डंसने के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं।
यही बात व्यक्ति पर भी लागू होती है। यदि कोई व्यक्ति बहुत गुस्सा, क्रोध करता है तो लोग उससे डरते हैं, दूरी बनाकर रखते हैं, लेकिन यदि कोई सीधा-सादा व्यक्ति दीखता है तो उसे लूटने, फायदा उठाने की बात सोचते हैं। ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि दिखावे के रूप में थोड़ा गुस्सा किया जाए, ताकि अन्याय को पनपने का अवसर न मिले, लेकिन इसकी सीमा इतनी ही होनी चाहिए कि इससे दूसरे व्यक्ति का या स्वयं का अहित न हो।
यदि क्रोध का आवेग ज्यादा हो तो ऐसी स्थिति में एकांत में चले जाना चाहिए, ताकि आत्ममंथन कर सही निर्णय लिया जा सके। मन को किसी दूसरी दिशा में लगाकर या मनपसंद कार्य करके भी क्रोध के वेग को कम किया जा सकता है। क्रोध के वेग को कम करने के लिए ऐसे कार्यों को भी किया जा सकता है, जिनमें स्वयं की रुचि हो। इसके अतिरिक्त मन को शांत करने के लिए नियमित उपासना, ध्यान, आत्मचिंतन का भी अभ्यास करना चाहिए। इससे यह समझ में आता है कि जो भी बातें हुई हैं, उनमें क्रोध या गुस्सा आने का क्या कारण था, उसका निवारण कैसे संभव हो सकता है और क्या करना सबसे अधिक उचित रहेगा। इस तरह समझदारी से मन को शांत करके क्रोध को कम या खतम किया जा सकता है।🙏
यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻