🙏 शिवयोग-सेवा-साधना-ग्रुप.li 🙏
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*कुण्डलिनी_ही_काली_और_दुर्गा*
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यदि जागृत कुण्डलिनी को नियंत्रित न किया जा सके तो उसे काली कहते है। किन्तु यदि उसे नियंत्रित करके अर्थ पूर्ण बनाया जा सके तो यही शक्ति दुर्गा कही जाती है।
काली नग्न है एंव काले या धूम्र रंग की एक देवी है जो १०८ मानव खोपडियो की माला पहने हुए है तथा जिन्हें विभिन्न जन्मो का प्रतीक मानते है काली की लपलपाती हई लाल जीभ रजोगुण का प्रतीक है व इसका गोलाकार घूमना रचनात्मक गतिविधि का संकेत है इस प्रकार विशेषं प्रतीको के द्वारा देवी साधकों को संकेत देती है कि वे रजोगुण को नियंत्रित रखे बाये हाथ में धारण की हुई बलि की तलवार और नरमुण्ड सृष्टि के विनाश के सुचक है अधंकार और मृत्यू का अर्थ प्रकाश और जीवन की अनुपस्थिति कतई नही है वरन वे ही इनके मूल है पुरूष स्थिर है और वह शक्ति तत्व सो क्रियाशील होता है अतः साधक ब्रह्माण्डीय शक्ति की उपासना स्त्री रुप मे करते है क्योकि यह पक्ष गतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है।
पुराणो मे काली शक्ति के जागरण का विवरण विस्तार से पाया जाता है जब काली जागृत होकर क्रोध से लाल हो जाती है तो सभी देवता दानव चकित और शांन्त हो जाते है वे यह भी नही जानते कि देवी क्या करने जा रही है वे भगवान शिव से उसे शांत करने की प्रार्थना करते है किन्तु रक्त और मांस की प्यासी काली क्रोध मे दहाडती हुई भगवान शिव की छाती पर मुहँ खोलकर खडी हो जाती है जब देवता उसे शांत करने की स्तुति आदि करते है तब जाकर कही उनका क्रोध शांत होता है।
इसके बाद उच्च, अधिक सौम्य तथा अचेतन की प्रतीी दुर्गा शक्ति प्रकट होती है दुर्गा सिहँ पर सवार एक सुन्दर देवी है उसकी आठ भूजाएँ है जो आठ तत्वो का प्रतीक है दुर्गा नरमुण्डो की माला धारण करती है जो उसकी शक्ति और बुद्धिमता की प्रतीक है सामान्यतया ये नरमुण्ड संख्या मे ,५२ होते है ये संस्कृत वर्णमाला के उन ५२अक्षरोंका प्रतिनिधित्व करते है जो कि नाद के रूप मे शब्द ब्रह्म की बाह्य अभिव्याक्तियां है दुर्गा जीवन की सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से छुटकारा दिलाने वाली एवं मूलाधार से मुक्त होने वाली शक्ति और शान्ति की दात्री मानी जाती है।
यौगिक दर्शन के अनुसार अचेतन कुण्डलिनी का प्रथम स्वरूप काली एक विकराल शक्ति है जिसका शिव के उपर खडे होना उसके द्वारा आत्मा पर संपूर्ण को व्यक्त करता है कुछ लोग कभी कभी मानसिकता अस्थिरता के कारण अपने अचेतन शरीर के सम्पर्क मे आ जाते है जिसके फलस्वरूप उन्हे अशुभ और भयानक भूत पिशाच दिखाई पडने लगते है जब मनुष्य की अचेतन शक्ति अर्थात काली का जागरण होता है तो यह ऊध्र्व गमन के बाद उच्च चेतना दुर्गा जो आन्नदप्रदायनी है का रूप धारण कर लेती है
लगभग सभी तन्त्र विशेषज्ञों एवं महान आत्मा साधकों ने #कुण्डलिनी के विवरण मे छह चक्रों का ही वर्णन किया है। इन वर्णनों मे भी एक रूपता नही है, अनेक विवरण तो ऐसे है , कि उस साधक को #कुण्डलिनी के चक्रों का साक्षात्कार हुआ भी है aया नही? यहाँ जो विवरण है वह सत्य ज्ञान पर आधारित है, किन्तु यह भी छह के बारे मे है, जबकि यह नौ होते है ।
दो चक्र समीपवर्ती चक्र के गुणों से युक्त होते है, इसलिए साधना मे इन्हें छोड दिया जाता है; क्योंकि ये साथ ही सिद्ध हो जाते है । इसके बाद भी ये सात होते है और सातवें की सिद्धि छह से हो जाती है।, sइसलिए षटचक्रभेदन कहा जाता है। जब छह चक्रों को बेंधा जायेगा , तो यह स्वाभाविक रूप मे चक्र सात होगें , क्योंकि चक्र के साधन से ही इन्हें बेंधा जाता है
जबकि ये नौ होते है और कई साधकों ने इन्हे नौ ही माना है । hनवनिधि इन्हें ही कहा जाता है। ये नौ शक्ति समुद्र है, जिनमे गोता लगाकर साधक रत्नों को प्राप्त करता हुआ #सदाशिव का दर्शन प्राप्त करता है । प्रत्येक चक्र की एक देवी होती है। इस तरह नवशक्ति, नवदुर्गा आदि उत्पन्न होती है, अतः साधक को इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए । साधना के क्रम में उसे स्वयं वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है ।
आपने देखा होगा कि #कुण्डलिनी के समस्त चक्रों को मेरूदण्ड मे बताया स्थित गया है।o परन्तु यह कलियुग है और पाखण्डी महागुरूओं की कोई कमी नही है । अनेक विवरण ग्रन्थों मे भी और गुरुओं के मुख से भी झुठ और झुठ का पुलिन्दा बनाकर ज्ञानपिपासुओं को द्विगभ्रमित करते है । कोई लिंग शीर्ष पर चक्र बताता है , तो कोई नाभि मे कोई #ह्रदय मे बताता है, तो कोई #कण्ठ में स्पष्ठ समझ लें कि ये लोग कितने भी प्रसिद्ध महात्मा या सन्त है , झुठ बोलते है । समस्त चक्र मेरूदण्ड से कपालखण्ड #सिर मे विधमान होते है ।
वह भी मेरूदण्ड के केन्द्रीय मध्य भाग में। इन चक्रों से ही लिंग , नाभि, ह्रदय, कण्ठ,आदि विकसित होते है । यदि इन अंगो पर ध्यान लगाते हैk , तो किसी भी चक्र का प्रत्यक्ष नही होगा । जो होगा, वह मिथ्या भ्रमानुभूति होगी और आप भटक कर रह जायेगें । तीसरा भ्रम सर्प के सम्बन्ध मे है। vशिवलिंग पर जो सर्पनुमा आकृति लिपटी रहती है ।
वह एक ऊर्जा संरचना है, जो जो इस शिवलिंग पर साढ़े तीन वलय मे लिपटी रहती है । इसका फण भी एक ऊर्जा संरचना है s, जो शिवलिंग के शीर्ष से निकलती हैऔरइससे जुडी होने के कारण जुडी होने के कारण इसके सर्प के रूप मे प्रत्यक्ष होती है। जब साधक इसको उर्ध्वोंन्मुखी मानसिक बल से ऊपर खींचता है, तो यह धारा बलशाली होकर ऊपर उठती है i,और अगले चक्र के निचले हिस्से की मध्य धारा में समा जाती है।s
यहाँ स्वाभाविक उर्ध्वगामी धारा होती है, जिसमे मिलकर यह उस चक्र के नाभिक मे समा जाती है और वह नाभिक बलशाली हो जाता है, जिससे उसके शीर्ष की सर्पनुमा ऊर्जा धारा बलशाली होकर फण उठा लेती है। यह क्रम चलता रहता है। साधना मे यह रहस्य जानना आवश्यक है, अन्यथा आप भटकते ही रह जायेंगे।
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