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*🚩🌺इस धरती पर अगर कुछ बेकार है तो वह अहंकार है। 🚩🌺*
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🚩🌺इस संसार में हर प्राणधारी का अपना महत्व है। केवल उसका ही नहीं, हर अणु और परमाणु का भी अपना महत्व है। जैसे एक विशालकाय संयंत्र में किसी छोटे से पुर्जे के गड़बड़ होते ही पूरी मशीन गड़बड़ा जाती है, वैसे ही इस सृष्टि के संपूर्ण संतुलन में, छोटे से छोटे प्राणधारी और पदार्थ की लघुतम इकाई अणु-परमाणु का भी अहम योगदान होता है। इस सत्य को न समझने के कारण हम अक्सर आधुनिकता और कुलीन सभ्यता के दंभ में जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और कीट-पतंगों को तुच्छ या व्यर्थ समझ बैठते हैं। यह भी कहने लगते हैं कि क्यों ना इनका नाश कर दिया जाए, क्योंकि ये न केवल मानव के लिए कष्टकर हैं, अनेक रोगों को फैलाने वाले भी हैं।*
*🚩🌺एक पौराणिक कथा है। विदेहराज जनक के पास व्यास पुत्र शुकदेव ज्ञान लेने पहुंचे। ज्ञान प्राप्ति के बाद शुकदेव ने गुरु-दक्षिणा देनी चाही। राजा जनक ने वह चीज मांगी जो बिलकुल व्यर्थ हो। शुकदेव हंस पड़े कि क्या-क्या लाएंगे? यह धरती तो बेकार चीजों से भरी पड़ी है। वह राजमहल से निकलकर सड़क पर आ गए। देखा, चारों ओर मिट्टी ही मिट्टी बिखरी थी। खुश होकर मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया। कहते हैं कि शुकदेव को मिट्टी में से चीख सुनाई दी कि मुझे व्यर्थ समझ रहे हो, जबकि धरती का सारा वैभव और संपदा मेरे ही गर्भ में है? तेरा शरीर मेरे से ही बना है। सुनकर शुकदेव का हाथ स्वयं पीछे हट गया।*
*🚩🌺थोड़ी दूर आगे बढ़े तो रास्ते पर पड़े एक पत्थर को उठाना चाहा। फिर सवाल उछला कि विशालकाय पर्वतों में क्या मैं नहीं हूं, जो पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, नदी-नालों को धारण किए हुए हैं? जिस भवन में तुम रहते हो, वे भी मेरे से ही बने हैं। लज्जित शुकदेव उसके बाद कूड़े-कचरे के ढेर के पास गए और सोचा कि यह ठीक रहेगा, क्योंकि लोग इसे देखकर ही घृणा से मुंह फेर लेते हैं। लेकिन वहां भी सुनने को मिला, ‘धर्मात्मा शुकदेव! तुमने यह कैसे तय किया कि मैं व्यर्थ हूं और मेरा इस धरती पर कोई उपयोग नहीं है? क्या मुझसे बढ़िया खाद धरती पर मिलेगी, जो अन्न, फल-फूल, पेड़-पौधों को प्राणवान ही नहीं बनाती बल्कि फसलों को पुष्ट, परिपाक तथा मधुर स्वाद भी देती है? क्या यही तुम्हारी ज्ञानोपलब्धि है?’*
*🚩🌺दुविधाग्रस्त शुकदेव पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगे कि फिर इस धरती पर व्यर्थ क्या है? सोचते-सोचते आत्मस्थ हो गए। तभी भीतर से एक गूंज सुनाई दी कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरे को व्यर्थ समझता है। यह ज्ञान होते ही शुकदेव सीधे जनक के दरबार में पहुंचे। जनक ने दक्षिणा के बारे में पूछा। जवाब में शुकदेव ने कहा कि वे अपना अहंकार दक्षिणा में देने आए हैं, इससे अधिक व्यर्थ और तुच्छ क्या हो सकता है? जनक ने यह सुनते ही उन्हें अपने गले से लगा लिया।*
*🚩🌺हम भी यह जानें कि इस सृष्टि-व्यवस्था में निरर्थक कुछ नहीं है। संपूर्ण सृष्टि अपने में एक परिवार है। एक जल-कण से लेकर हिमालय तक। एक सूक्ष्मतम जीवाणु से लेकर विशालकाय हाथी तक। सब एक-दूसरे के पूरक हैं। सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। व्यर्थ अगर कुछ है तो केवल अपना अहंकार और दूसरों को तुच्छ समझने की दृष्टि है। इस कारण ही समाज में असमानता को पनपने का मौका मिला है। छोटे-बड़े, अगड़े-पिछड़े, अमीर-गरीब का फर्क आ गया है। जब तक यह ऐक्य दृष्टि विकसित नहीं होगी, हम आपस में बंटे ही रहेंगे।*
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